گلي از روضهي جاويد بنماي | | الهي غنچهي اميد بگشاي! |
وزين گل عطرپرور کن دماغم! | | بخندان از لب آن غنچه باغم! |
به نعمتهاي خويشام کن شناسا! | | درين محنتسراي بي مواسا |
زبانم را ستايشپيشه گردان! | | ضميرم را سپاس انديشه گردان! |
بر اقليم سخن فيروزيام بخش! | | ز تقويم خرد بهروزيام بخش! |
ز گنج دل زبان را کن گهر سنج! | | دلي دادي ز گوهر گنج بر گنج |
معطر کن ز مشکم قاف تا قاف! | | گشادي نافهي طبع مرا ناف |
ز عطرم نامه را عنبرفشان کن! | | ز شعرم خامه را شکرزبان کن! |
وز آن نامه بجز نامي نماندهست | | سخن را خود سرانجامي نماندهست |
نمييابم نوايي ز آن ترانه | | درين خمخانهي شيرينفسانه |
تهيخمها رها کردند و رفتند | | حريفان بادهها خوردند و رفتند |
که باشد بر کفاش ز آن باده، جامي | | نبينم پختهي اين بزم، خامي |
ز صاف و درد پيش آر آنچه داري! | | بيا ساقي رها کن شرمساري! |