بدرود گفت فر جواني
شاعر : ملک الشعرا بهار
سستي گرفت چيرهزباني |
|
بدرود گفت فر جواني |
آن کلک همچو تيغ يماني |
|
شد نرم همچو شاخهي سوسن |
آن آبدار گوهر کاني |
|
شد خاکسار دست حوادث |
گشت آن غرور و نخوت فاني |
|
شد آن عذار دلکش پژمان |
چندان که پشت گشت کماني |
|
تير غم نشست به پهلو |
دورم فکند چرخ کياني |
|
شد هفت سال تا ز خراسان |
نارم درست داد نشاني |
|
اکنون گرم ز خانه بپرسند |
بوم اندر آن به مرثيهخواني |
|
شهر ري آشيانهي بوم است |
ز انبوه دوستان زباني |
|
هر بامداد خانه شود پر |
در شنعت فلان و فلاني |
|
غيبت کنند و قصه سرايند |
از چنگ آن گروه، نهاني |
|
آن روز راحتم که گريزم |
با دهر کردهاند تباني |
|
گويي پي شکست بزرگان |
حال دل شکسته تو داني |
|
يا رب! دلم شکست در اين شهر |
کاين جاي دزدي است و عواني |
|
من نيستم فراخور اين جاي |
پستاند، پست عالي و داني |
|
دزدند، دزد منعم و درويش |
و ايمن ز حادثات زماني |
|
سيراب باد خاک خراسان |
در مردمش مباد گراني |
|
در نعمتش مباد کرانه |
آن مرکز اميري و خاني |
|
آن بنگه شهامت و مردي |
آن مشتهر به شاه نشاني |
|
آن مفتخر به تاج سپاري |
وآن دلنشين سرود شباني |
|
آن کوهسار دلکش و احشام |
الفاظ نيک و نيک معاني |
|
و آن شاعران نيکوگفتار |
|
مقالات مرتبط