| مرکز فتح سايهي علمت | | قيد اقبال در سر قلمت |
| در دو گيتي ز جرعهي جامت | | مستي خواجگان همنامت |
| که بزرگي ز آسمان داري | | بر تو خوردي ازين جهانداري |
| زان پرستد همي سپاه ترا | | بدعا خواستست شاه ترا |
| سروري، چون کف کليم از جيب | | با تو همراه کردهاند از غيب |
| ناز ما نيز وقتها ميکش | | اي همه ناز و نوشها بتو خوش |
| ناز کردن ز روي نازيبا | | طرفه باشد چو موي بر ديبا |
| کرده بودم زاين و آن گوشه | | من درين سالها که بي توشه |
| بدعاي تو سر فراختهام | | ارغنون غمت نواختهام |
| عاشقانرا چه غيبت و چه حضور؟ | | خانه پرور ز سايه گويد و نور |
| نوش داروي اهل درد تويي | | مردم اين جهان و مرد تويي |
| بشنو کين سخن هم از جاييست | | آن مبين کم سريست يا پاييست؟ |
| و گرش رد کني، بقاي تو باد | | گر قبول اوفتد رهينم و شاد |
| کار درويش ما حضر باشد | | نه که هر مهرهاي گهر باشد |
| نظري هم بدين غريب انداز | | چشم کردي بروي هرکس باز |
| مددم کن بهر چه بتواني | | من چگويم : چه کن؟ تو ميداني |
| زانکه من هم رعيتم در ده | | نظري کن به حال من زين به |
| جامهي مدح در که پوشاند ؟ | | ده نشيني چه ديگ جوشاند ؟ |
| تا توان باخت در معاني گوي | | اين چنين فضل و خلق بايد و خوي |
| که بر تست کل معني جمع | | از تو گيرد سخن فروغ چو شمع |
| پادشاهي و پهلواني را | | مصر جامع تويي معاني را |
| نطق را اندرو مجالي هست | | هرکجا اين چنين کمالي هست |
| آب توفان آز را نوحي | | تا کنونم نبوده ممدوحي |
| عرضه افتد به لحن داودي | | چون رسيد اين سفينه بر جودي |
| مشتمل بر فنون حاجاتم | | در زبور سخن مناجاتم |
| تا برون آورم تر و تازه | | بنوازم به قدر و اندازه |
| وز رصدگاه فضل زيجي چند | | از نورد سخن نسيجي چند |
| تن فرو دادهام به خاموشي | | گرچه از سيرت هنر پوشي |
| همچو دريا به جوشم آوردند | | دگر اندر خروشم آوردند |
| اندرين روزگار ارزاني | | سخن اوحدي، که ميداني |
| ور مدون شود، بخوانندش | | کم به ديوان برند مانندش |
| جز مگس انگبين تواند خورد؟ | | هر مگس انگبين چه داند کرد؟ |
| مگسي ديگرش تباه کند | | مگسي انگبين چو ماه کند |
| مهل امروز در پس پرده | | اين سخنهاي بکر پرورده |
| زان چو عرش استوار و پاينده است | | شعر نوري ز عرش زاينده است |
| تا بماند چو آسمان دايم | | فيض بايد به آسمان قايم |
| پيش عقل از حساب ما دورند | | گرچه فوجي به شعر مشهورند |
| تا ببيني چو بيژنم در چاه | | اندرين جام کن به لطف نگاه |
| کي روا باشد ار نداني تو؟ | | اي که کيخسرو زماني تو |
| کنده گرگين بيهنر دندان | | بيژن شير خفته در زندان |
| بدر افگن سفال مستان را | | داري اين جام و اين گلستان را |
| شده نزديک ازو منور و دور | | چون چراغيست اين صحيفهي نور |
| آخر شب به بزمهاي صبوح | | کش برافروختم به روغن روح |
| برده باشد به حاصلش رنجي | | هر کرا باشد اين چنين گنجي |
| شب و روزي به کار ما پرداز | | اي شب و روز عالم از تو بساز |
| روز لطفي چنانکه داني کن | | شب نگاهي درين معاني کن |
| اتفاق چنين شب و روزي | | حبذا از چنان دل افروزي ! |
| مکن و روز نيک را درياب | | صاحبا، در شب سعادت خواب |
| روزت از روز و شب ز شب به باد | | که وجودت به جود فربه باد |
| در پذير، ارچه بس حقير آورد | | تحفه کين مفلس فقير آورد |
| به متاع زمين چه محتاجي ؟ | | تو که بر فرق آسمان تاجي |
| ور سلوکست سر گذشتهي تست | | گر علومست در نوشتهي تست |
| که شود دانشت به اينها بيش | | نه بدان آورندت اينها پيش |
| چون به نام تو شد به نام رسد | | سخن از خواندنت به کام رسد |
| گرچه خامل بود، شود مشهور | | کاملي را که بنگري از دور |
| بر صداي فلک کند ميري | | صوت صيت تو در جهانگيري |